सनातन संस्कृति में कालगणना की वैज्ञानिकता

                                                                             सुधीर कुमार

हमारी सनातन संस्कृति में भारतीय नव वर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को माना गया है। इसके साथ हमारी राष्ट्रीय अस्मिता और सांस्कृतिक पहचान जुड़ी हुई है। चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को सृष्टि की रचना का प्रथम दिवस माना गया है। क्योंकि इसी दिन के सूर्य उदय से ब्रह्मा जी ने इस सृष्टि की रचना की थी। जिस के संदर्भ में लिखा गया है-

चैत्र मासि जगत ब्रह्मा सगृज प्रथमेहनि ।
शुक्लपक्ष समग्रन्तु तथा सूर्योदय सति।। (हिमाद्रि ज्योतिष)

चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य ने इसी दिन अपना राज्य स्थापित किया। विक्रमादित्य की भांति शालिवाहन ने हूणों को परास्त कर दक्षिण भारत में श्रेष्ठतम राज्य स्थापित करने हेतु यही दिन चुना। धर्मराज युधिष्ठिर का राज्याभिषेक भी इसी दिन हुआ। प्रभु श्री राम के राज्याभिषेक के लिए भी लंका विजय के बाद इसी दिन को चुना गया। नवरात्रा स्थापना शक्ति और भक्ति के नौ दिन अर्थात नवरात्र स्थापना का प्रथम दिवस यही है। प्रभु श्री राम के जन्मदिवस रामनवमी से पूर्व नौ दिन उत्सव मनाने का प्रथम दिन, सिख परंपरा के दितीय गुरू, गुरू अंगद देव का जन्म दिवस, स्वामी दयानंद सरस्वती ने आर्य समाज की स्थापना के लिए इसी पवित्र दिन को चुना। सिंध प्रांत के प्रसिद्ध समाज रक्षक वरूणावतार संत झूलेलाल इसी दिन प्रकट हुए।

भारतीय नववर्ष के आगमन का संदेश प्रकृति का कण-कण देता है। पुरातन का संपन्न और नवीन का सृजन प्रकृति का प्रत्येक कोना दर्शाता है। अर्थात वसंत ऋतु का आगमन भी चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से ही होता है। प्रकृति में उल्लास, उमंग, खुशी तथा पुष्पों की सुगंधि चारों ओर अनुभव की जा सकती है। फसल पकने का प्रारंभ अर्थात किसान की मेहनत मिलने का भी यही समय होता है। विद्यार्थी अपनी वर्तमान कक्षा की परीक्षा देकर अगली कक्षा में जाने के लिए आतुर रहते है अर्थात विद्यार्थी की कक्षा बदलती है। सरकार एवं व्यापारी वर्ग भी इसी दिन से अपना नया वित्तीय-वर्ष प्रारंभ करते हैं। नक्षत्र शुभ स्थिति में होते हैं अर्थात किसी भी कार्य को प्रारंभ करने के लिए यह शुभ मुहूर्त होता है।

कालगणना केवल दिन व दिनांक की गणना नहीं है। अपितु कालगणना विचार का आधार है। विचार के तीन आयाम हैं -भूत, वर्तमान और भविष्य ! काल के बिना इन तीनों आयामों का विभाजन संभव नहीं है। भूत हमारा इतिहास है, वर्तमान इसका परिणाम है- खगोल, भूगोल है तथा भविष्य इसकी दिशा है। गंतव्य प्राप्तव्य की आकांक्षा है। अर्थात तीनों कालों का बोध कराने वाली गणना को पंचांग कहते हैं। यूं तो कालगणना का प्रत्येक पल किसी ना किसी प्रकार से महत्व रखता है, परंतु कुछ तिथियों का भारतीय कालगणना में विशेष महत्व है।

भारतीय नव वर्ष (विक्रमी संवत) का पहला दिन (वर्ष प्रतिपदा) अपने आप में एक विशेष स्थान रखता है। इसे नव संवत्सर भी कहते हैं। इस दिन पृथ्वी सूर्य का एक चक्कर पूरा करती है तथा दिन रात बराबर होते हैं। इसके बाद से ही रात की अपेक्षा दिन बड़ा होने लगता है। काली अंधेरी रात के अंधकार को चीरकर चांदनी अपनी छटा बिखेरना प्रारंभ कर देती है। वास्तव में यह समय दो ऋतुओं का संधि काल है। इसमें रातें छोटी और दिन बड़े होने लगते हैं। ठंड की समाप्ति और ग्रीष्म का प्रारंभ अत्यंत ही मधुर व आनन्ददायक आगमन का अनुभव होता है। वृक्षों पर नवीन पत्तियों और कोपलों का आगमन होता है। आम के वृक्ष पर बौर आने लगता है। अर्थात पतझड़ समाप्त होता है और बसंत ऋतु का आगमन होता है। प्रकृति में हरियाली छा जाती है। ऐसा प्रतीत होने लगता है जैसे प्रकृति ने नव श्रृंगार किया हो।

हमारा अंतरिक्ष हमारे लिए एक विशाल प्रयोगशाला है। ग्रह-नक्षत्र-तारों आदि के दर्शन से उनकी गति-स्थिति, उदय-अस्त के द्वारा हम अपने भारतीय पंचांग को स्पष्ट रूप से देख सकते हैं। अमावस व पूर्णिमा को हम स्पष्ट देख सकते हैं। जब पूर्णचंद्र चित्रा नक्षत्र के निकट हो तो चैत्री पूर्णिमा, विशाखा नक्षत्र के निकट होने पर वैशाली पूर्णिमा। जब हम पूर्ण चंद्रमा को उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र के निकट देखेंगे तो यह फागुन मास की पूर्णिमा है। आकाश में ग्रहों की स्थिति सूर्य से प्रारंभ होकर क्रमशः बुध, शुक्र, मंगल, गुरु और शनि की है। पृथ्वी के उपग्रह चंद्रमा सहित इन्हीं अन्य छ: ग्रहों पर सप्ताह के सात दिनों का नामकरण किया गया है। तिथि घटे अथवा बढे किंतु सूर्यग्रहण हमेशा अमावस्या को ही होगा, इसी प्रकार चंद्रग्रहण सदा पूर्णिमा को होगा। इसमें कभी कोई अंतर नहीं आ सकता। अतः भारतीय कैलेंडर का आधार वैज्ञानिक है एवं सार गर्भक भी।

भारत में अंग्रेजों का शासन 200 वर्षों तक रहा फिर भी, आज हमारे देशवासी उसी परतंत्रता की मानसिकता में फंसे हुए हैं। उन्होंने अपने सांस्कृतिक और आध्यात्मिक गौरव को भुला दिया है।अंग्रेजियत के कारण वे अपने भारतीय कैलेंडर को ही भूल गए।एक ओर हम सभी, तीज- त्यौहार व मंगल कार्य इसी कैलेंडर की तिथियों से मनाते हैं।इसके पीछे का मूल कारण स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात, हमारे राजनीतिक नेतृत्व का राष्ट्र के इतिहास और प्रतीकों के प्रति ढुलमुल रवैया रहा। स्वामी विवेकानंद ने कहा था-" यदि हमें गौरव से जीने का भाव जगाना है तो राष्ट्रीय तिथियों को अपने दैनिक व्यवहार में लाना होगा। गुलाम बनाए रखने वाले विदेशियों की तिथियों पर आश्रित रहने वाला अपना सर्वस्व खो बैठता है।"

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद ,भारत सरकार ने राष्ट्रीय पंचांग निश्चित करने के लिए प्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉक्टर मेघनाथ साहा की अध्यक्षता में नवंबर 1952 में कैलेंडर रिफॉर्म कमेटी का गठन किया था।जिसकी रिपोर्ट 1955 में सरकार को सौंपी गई। कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में विक्रमी संवत को भी स्वीकार करने की सिफारिश की थी, यह रिपोर्ट" साइंस एंड कल्चर"पत्रिका में प्रकाशित भी हुई।

ईस्वी सन् का मौलिक संबंध ईसाई पंथ से नहीं है यह तो यूरोप के अर्धसभ्य  कबीलों में ईसा मसीह के बहुत पहले से ही चल रहा था।इसके एक वर्ष में 10 माह और 304 दिन होते थे। पुरानी रोमन सभ्यता को भी तब तक ज्ञात नहीं था कि सौर वर्ष और चंद्रामास की अवधि क्या थी। इन्हीं दस महीनों का एक वर्ष वे तब तक चलाते रहे जब तक उनके नेता सेनापति जुलियस सीजर ने इसमें संशोधन नहीं किया।

ईसा के 530 वर्ष बीत जाने के बाद, इसाई बिशाप ने  पर्याप्त कल्पनाएं कर 25 दिसंबर को ईसा का जन्म दिवस घोषित किया।1572 तेहरवें पोप ग्रेगरी महाशय ने इस कैलेंडर को 10 दिन आगे बढ़ाकर 5 अक्टूबर शुक्रवार को 15 अक्टूबर शुक्रवार माना।ब्रिटेन ने इसे 200 वर्ष के बाद 1775 में स्वीकार किया।यूरोप के कैलेंडर में 28, 29,30,31 दिनों के महीने होते थे। जो विचित्र हैं, ये न तो किसी खगोलीय घटना पर आधारित है और ना ही किसी प्रकृति चक्र पर। कैलेंडर रिफॉर्म कमेटी ने विक्रमी संवत को राष्ट्रीय संवत बनाने की सिफारिश की थी। वास्तव में विक्रमी संवत, ईसा संवत से 57 वर्ष पुराना है। लेकिन दुर्भाग्यवश शोध उपेक्षित रहा, स्वार्थ अपेक्षित हो गया।

चिन्ड्रन्स ब्रिटानिका V.01.3-1964 में कैलेंडर का इतिहास बताया गया है-ईसाई मत में ईसा मसीह का जन्म इतिहास की निर्णायक घटना है। अतः कालक्रम को B.C (Before Christ) और A.D (Anno Domini) अर्थात In the year of our Lord में बांटा गया। किंतु यह पद्धति ईसा के जन्म के कुछ सदियों तक प्रचलन में नहीं आई।

रोमन कैलेंडर--आज के इसवी सन  का मूल रोमन संवत् है।यह ईसा के जन्म के 753 वर्ष पूर्व रोम नगर की स्थापना से प्रारंभ हुआ तब इसमें दस मास थे।प्रथम मास मार्च व अंतिम मास दिसंबर होता था व वर्ष होता था 304 दिन का।बाद में राजा नूमा पिम्पोलियस ने दो माह( जनवरी व फरवरी)जोड़ दिए तब से 12 मास अर्थात 355 दिन का हो गया। अब यह ग्रहों की गति से मेल नहीं खाता था तो जूलियस सीजर ने इसे 365/1/4 दिन का  करने का आदेश दे दिया। जिसमें कुछ माह 30 व कुछ 31 दिन के बनाए गए और फरवरी 28 दिन  का रहा जो चार वर्षों में 29 दिन का होता है। इस प्रकार यह गणनाएँ प्रारंभ से ही अवैज्ञानिक, असंगत, असंतुलित, विवादित एवं काल्पनिक रही है।

भारतीय कैलेंडर में हिंदू मासों का नामकरण नक्षत्रों के आधार पर किया गया है। जिस मास में जिस नक्षत्र का चंद्रमा पूर्ण हो, वह मास उसी नक्षत्र के नाम से जाना गया जबकि विदेशी मासों का नामकरण किसी राजा, देवी- देवता, त्यौहार या शब्द के नाम पर हुआ अर्थात खगोलीय सत्य नहीं मानवीय मान्यताओं के आधार पर हुआ जैसे चैत्र मास-चित्रा नक्षत्र, वैशाख-विशाखा ज्येष्ठ-ज्येष्ठा, अषाढ़-अषाढा, श्रावण - श्रवण,भाद्रपद -भाद्रपद, आश्विन-आश्विनी, कार्तिक-कृतिका, मार्गशीर्ष- मृगशिरा पोष-पुष्य,माघ-मघा,फाल्गुन- फाल्गुनी नक्षत्र है, जबकि अंग्रेजी कैलेंडर में मार्च-मार्स, अप्रैल-एपरिट, मई - माइमा (रोम की देवी ),जून- जूनो(स्वर्ग की रानी), जुलाई -जूलियस सीजर( रोम सम्राट),अगस्त-आगस्टस (रोम का राजा), सितंबर –सप्तम (शब्द) अक्टूबर – आक्टो (शब्द) नवंबर - नोवम( शब्द), दिसंबर -डीसेस (शब्द) जनवरी-जेनस (रोम के देवता) फरवरी-फेबुआ (रोमन त्यौहार) इत्यादि।

अतः भारतीय कैलेंडर की काल गणना तर्कसंगत व प्राचीन है। आइए विदेशी को फेंक स्वदेशी अपनाएं और गर्व के साथ भारतीय नव वर्ष अर्थात विक्रमी संवत् को ही मनाए तथा इसका अधिक से अधिक प्रचार करें क्योंकि हमारे पूर्वजों ने इतने वैज्ञानिक एवं कालजयी ज्ञान-विज्ञान को लंबे अनुसंधान एवं प्राप्त परिणामों के आधार पर विकसित किया था। परंतु हमारी नई पीढ़ी को अपनी श्रेष्ठ परंपरा का ज्ञान ही नहीं है। वह नहीं जानती कि नव वर्ष कब आता और कब जा रहा है चाहे हम कितने ही आधुनिक हो जाए मगर बच्चे के जन्म से लेकर, घर खरीदना, शादी-विवाह, मृत्यु या जीवन के प्रत्येक अवसर पर भारतीय पंचांग का अनुसरण करते हैं। फिर इसे अपने दैनिक व्यवहार में भी लेकर आए और हिंदू नव वर्ष विक्रमी संवत 2080 मनाए।
 
सुधीर कुमार 
करनाल (हरियाणा)
संपर्क सूत्र – 9466587719