दुलीचंद कालीरमन
प्रधानमंत्री
नरेंद्र मोदी ने संयुक्त राष्ट्र महासभा के 75वें सत्र को संबोधित करते हुए वर्तमान
दौर में संयुक्त राष्ट्र संघ और विश्व की महा शक्तियों को आईना दिखाने का काम किया
है। वर्तमान दौर में विश्व कोरोना की गंभीर महामारी से जूझ रहा है जिसमें विश्व भर
से लाखों लोग काल के गाल में समा चुके हैं। दूसरी तरफ विश्व चीन की विस्तारवादी
नीतियों के कारण तीसरे विश्वयुद्ध के मुहाने पर खड़ा है। संयुक्त राष्ट्र संघ के
पांच स्थाई सदस्य देश युक्त राष्ट्र संघ जैसी वैश्विक संस्था को अपनी जेब में रखते
हैं तथा बाकी देशों को उनके रहमों करम पर निर्भर रहना पड़ता है। वर्तमान में चल
रहे आर्मीनिया-अजरबैजान युद्ध में हजारों सैनिकों और नागरिकों के मारे जाने के
बावजूद संयुक्त राष्ट्र संघ की शांति की अपील घर के बेबस वृद्ध की तरह अनसुनी की
जा रही है।
यहां यह भी
गौरतलब है कि संयुक्त राष्ट्र संघ का वर्तमान स्वरूप भी प्रथम एवं द्वितीय विश्व
युद्ध के दौरान हुई भयंकर जनहानि और संसाधनों की बर्बादी से त्रस्त विश्व की
तत्कालीन परिस्थितियों को भविष्य में न दोहराए जाने की मंशा के रूप में जन्मा था।
लेकिन अभी तक के संयुक्त राष्ट्र संघ के इतिहास पर नजर डालें तो यह मात्र विकसित
देशों की जेबी संस्था बनकर रह गई है। अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, फ्रांस तथा चीन आदि स्थाई सदस्य देश इसे
अपने राष्ट्रीय हितों के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ की शक्तियों को अपनी विदेश नीति
के हथियार के तौर पर इस्तेमाल करते हैं।
भौगोलिक और जनसांख्यिकी आंकड़ों की दृष्टि से भी
वैश्विक स्तर पर संयुक्त राष्ट्र संघ में गैर बराबरी परिलक्षित होती है। दुनिया के 30 प्रतिशत भूभाग तथा 60 प्रतिशत जनसंख्या वाले एशिया महाद्वीप की
संयुक्त राष्ट्र संघ में सहभागिता केवल चीन के रूप में है जो अब 'ग्लोबल विलेन ' के रूप में विश्व में कुख्यात हो चुका
है। विश्व की कुल आबादी का 17 प्रतिशत वाले देश भारत को संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थाई सदस्यता से बाहर
रखना दुनिया के
सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश के साथ अन्याय है। भारत अब विश्व की उभरती हुई
अर्थव्यवस्था है। मौजूदा समय में भारत विश्व की छठी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है तथा
क्रय शक्ति आधारित विश्व की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था है। वैश्विक स्तर पर भारत के
बढ़ते हुए कदमों ने भारत के संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता के
दावे को और मजबूत किया है।
भारत ने एकल
तथा सामूहिक रूप से सुरक्षा परिषद में सुधारों हेतु जर्मनी, ब्राजील तथा जापान के साथ मिलकर जी-4 नामक समूह बनाया है। ये चारों देश एक
दूसरे के लिए स्थाई सदस्यता हेतु एक दूसरे देश का समर्थन करते हैं। संयुक्त
राष्ट्र संघ में सुधारों की मांग केवल इन्हीं जी-4 देशों का समूह ही नहीं कर रहा बल्कि एल-69 समूह भी है जो भारत, एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के विकासशील
देशों की अगुवाई कर रहा है। इसके अलावा 54 देशों का अफ्रीकी समूह भी अफ्रीका
महाद्वीप से कम से कम दो राष्ट्रों के लिए स्थाई सदस्यता व वीटो की शक्तियों की
मांग करते हुए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सुधारों की निरंतर मांग कर रहा
है। ऐतिहासिक रूप से देखें तो संयुक्त राष्ट्र संघ में सुधारों की मांग तर्कसंगत
है क्योंकि वर्ष 1945 में इसकी
स्थापना के समय मात्र 51 सदस्य देश
थे। जो वर्तमान में 192 हो चुके
हैं। मूल रूप से सुरक्षा परिषद में 11 सदस्य देश थे जिन्हें 1965 में बढ़ाकर 15 कर दिया गया था। जिनमें पांच स्थाई सदस्य
हैं तथा 10 अस्थाई
सदस्य हैं।वर्ष 1945 से 2020 तक वैश्विक शक्ति संतुलन में बहुत परिवर्तन
आया है।
वर्तमान समय
और परिस्थितियों में विश्वभर से और संयुक्त राष्ट्र संघ में सुधारों की मांग को
लगभग अनसुना किया जा रहा है। क्योंकि सुरक्षा परिषद का कोई भी स्थाई सदस्य देश
यथास्थितिवाद को छोड़ना नहीं चाहता। अमेरिका-रूस शीत युद्ध के समय से ही वर्चस्व
की लड़ाई लड़ रहे हैं। वर्तमान में एशिया के प्रतिनिधि के तौर पर चीन कभी भी नहीं
चाहेगा कि भारत का राजनीतिक कद संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में उसके समान हो।
इसलिए वह अपने वीटो पावर का भारत के खिलाफ हर मोर्चे पर दुरुपयोग करता है। संयुक्त
राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सुधारों को लेकर वर्ष 2009 से ही अंतर सरकारी वार्ताएं चल रही है।
लेकिन इसमें अभी तक ठोस प्रगति न होने पर संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थाई प्रतिनिधि ने पत्र लिखकर असंतोष व्यक्त
किया है। यह सही है
कि भारत वर्ष 2021-22 के लिए
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का अस्थाई सदस्य चुन लिया गया है। लेकिन भारत को
अपनी राष्ट्रीय और वैश्विक हितों की रक्षा हेतु स्थाई सदस्यता के प्रयासों को उच्च
प्राथमिकता देनी होगी ताकि विश्व जनमत को इस दिशा में सोचने को मजबूर किया जा सके।
भारत का
संयुक्त राष्ट्र संघ के अलग-अलग क्षेत्रों में अप्रतिम योगदान रहा है। संयुक्त
राष्ट्र संघ के शांति मिशनों में भारतीय सेना और अर्धसैनिक बलों ने अपनी
महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। अभी तक संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा संचालित विश्व के
अलग-अलग देशों में 71 शांति
अभियानों में से 49 अभियानों
में भारतीय सैन्य बलों की भूमिका रही है। कांगो, दक्षिणी सूडान, कंबोडिया, सोमालिया, सिएरा लियोन, इथोपिया और ईस्ट तिमोर इत्यादि देशों में
भारत के लगभग दो लाख से अधिक सैनिक और अर्धसैनिक बल संयुक्त राष्ट्र संघ के झंडे
के नीचे अपनी सेवाएं दे चुके हैं। भारत के सैन्य अधिकारियों ने संयुक्त राष्ट्र
संघ के कई शांति मिशनों का नेतृत्व भी किया है। इन शांति मिशनों में 164 भारतीय सुरक्षाबलों ने अपने प्राणों का
सर्वोच्च बलिदान भी किया है।
कोरोना काल
में भी संयुक्त राष्ट्र संघ की एक संस्था विश्व स्वास्थ्य संगठन ने चीन के बचाव के
सिवाय इस महामारी में कोई रचनात्मक योगदान नहीं किया है । विश्व के अलग-अलग
क्षेत्रों में चल रहे संघर्षों में भी संयुक्त राष्ट्र संघ की भूमिका एक मूक-दर्शक
की ही बनी रही है। अफगानिस्तान में लंबे समय से चले आ रहे सैन्य संघर्ष में इसकी
कोई महत्वपूर्ण भूमिका नहीं है। विश्व में हथियारों की निरंतर बढ़ती जा रही होड, आतंकवाद, विस्तारवाद तथा वैश्विक व्यापार पर एक
तरफा कब्जा करने की कोशिश संयुक्त राष्ट्र संघ के सामने एक चुनौती की तरह खड़ी
है।वक्त की नजाकत को समझते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ को सुधारों की दिशा में गंभीर
प्रयास करने होंगे।
संयुक्त
राष्ट्र संघ अपने घोषित लक्ष्यों, लोकतांत्रिक और मानवीय मूल्यों की रक्षा का दंभ तभी भर सकता है, जब इस संस्था में विश्व के हर सदस्य देश
का विश्वास कायम होगा। अन्यथा यह संस्था अपने मूल उद्देश्यों से भटक कर कुछ
शक्तिशाली देशों के हाथों का खिलौना बन सकती है।
9468409948
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