मेरा घर

-वीरेन्द्र बहादुर सिंह

सामने की सीट पर बैठा जोड़ा काफी खुश लग रहा था। देखने से ही लग रहा था कि दोनों एक दूसरे से बहुत प्यार करते थे। प्यार करना ही चाहिए, जब दोनों को जीवन भर साथ रहना है तो। पत्नी का तो कोई स्वतंत्र व्यक्तित्व नहीं होता। पति उसका कितना ख्याल रखता है। गुलाब जामुन लोगी? पानी चाहिए क्या? खिड़की बंद कर दूं क्या? चाय या कॉफी? पुरुष इसी तरह अपनी पत्नियों से प्यार जताते हैं। पति के इस व्यवहार से पत्नियां कितनी खुश होती हैं। समानता के बजाय परावलंबन में ही सुख नजर आता है।

कल मेरा इंटरव्यू है। पता नहीं क्या पूछेगा? इतनी अच्छी नौकरी क्यों छोड़ दी? मैं क्या जवाब दूंगी? उस दिन विश्वास के मुंह पर मंगलसूत्र फेंक कर मैं चली आई थी। परित्यक्त विचार ‘‘तुम्हारे हसबैंड क्या करते हैं?’’ पुरुषों से कभी नहीं पूछा जाता कि उनकी पत्नियां क्या करती हैं। ट्रªेन अपनी गति से भागी जा रही थी। सामने वाली सीट पर पत्नी पति के कंधे पर सिर टिकाए लेटी थी। वह सो नहीं रही थी, शायद इसमें उसे सुख मिल रहा था। थोड़ी देर में स्टेशन आ गया। वह पुरुष था, इसलिए औरतों की तरह बैठा क्यों रहे। शायद यही सोचकर वह बिना मतलब ही ट्रेन से नीचे उतर गया। कुछ अन्य पुरुष भी नीचे उतर गए। ज्यादातर पुरुष ट्रेन पर तब चढ़े, जब ट्रेन चलने लगी। चलती ट्रेन पर चढ़ना, मतलब कि यह सिद्व करना है कि पुरुष हैं।

मैंने विश्वास के साथ शादी करने का िऩर्णय लिया था, तो सभी कह रहे, ‘‘तुम पीएचडी हो और वह मात्र बीएससी है। पागल हो गई हो क्या जो खुद से कम पढ़े लिखे के साथ शादी कर रही हो। वह पैसे वाला भी तो नहीं है। उससे ज्यादा ताक तू ही कमाती है। तुझे तो कोई अधिकारी पति मिल जाएगा। गाड़ी, बंगला सब कुछ।

मैं हंस कर कहती, ‘‘नहीं चाहिए मुझे अधिकारी पति, मेरे लिए विश्वास ही ठीक है। बाकी चीजें मैं खुद खरीद लूंगी। विश्वास मुझसे कम पढ़ा है तो क्या हुआ, पुरुषों को खुद से ज्यादा पढ़ी लिखी पत्नी नहीं पसंद। पति हर मामले में पत्नी से श्रेेष्ठ होना चाहिए। ऐसा क्यों? महिलाओं की यह मानसिक गुलामी अभी गई नहीं।’’ इस तरह सबके विरोध के बावजूद मैंने विश्वास से शादी कर ली थी।

शुरू शुरू में तो सब ठीकठाक रहा। पर बाद में हम दोनों के बीच तनाव रहने लगा। साथ रहते रहते मुझे पता चला कि विश्वास में हंसी मजाक करने की जरा भ्ी सामर्थ्य नहीं है। उसकी विनोद बुद्वि बुड्ढी है। किसी बात पर जब सभी खिलखिला कर हंसते हैं तो वह चुपचाप बैठा रहता। कभी बिना मतलब ही गलत जगह हंसने लगता। आखिर एक बार मैंने पूछ ही लिया, ‘‘क्या तुम्हें मेरा हंसी मजाक समझ में लहीं आता?’’

मेरे इस सवाल पर उसका पुरुष अभिमान सुलग उठा। उसने अहंकारी स्वर में कहा, ‘‘तुम्हारी बातें मूर्खों वाली होती हैं। मैं मूर्ख हूं क्या जो दिन भर बेवकूफों की तरह खिलखिला कर हंसता रहूं?’’

मैं सन्न रह गई। ‘खुद तो मूर्ख है औैर मुझे मूर्ख कहता है। इसकी हरकतों से नहीं लगता कि इसकी अपेक्षाएं मूखो जैसी हैं। मैं इसकेे लिए दाढ़ी बनाने का सामान ले आऊं, इसके जूते पॉलिस करूं, कपड़े बाथरूम में रखूं, इस तरह की इसकी अपेक्षाएं हैं। जबकि ग्शरह बजे मुझे कालेज पहुंचना होता था। उसके पहले लेक्चर की तैयारी करनी होती थी। खाना तो बनाना ही होता था।

दूसरी ओर सास की चकचक अलग से, ‘‘तुम नौकरी छोड़ दो, विश्वास को ढ़ंग से संभालो। उसे समय दो, तुम्हारे पास उसके लिए समय ही नहीं होता। यह काली बिंदी क्यों लगाती हो, ये छोटे छोटे कटे बाल नहीं अच्छे लगते।’’

एक बार मेरी मां को कुछ पैसों की जरूरत पड़ी तो मैंने उल्हें पैसे भेज दिए। इस बात पर पति जी को गुस्सा आ गया, ‘‘किससे पूछ कर पैसे दिए?’’

‘‘पूछना किससे, तुम से कहने वाली थी, पर कहा नहीं। बाकी मेरी कमाई के पैसे हैं, मैंने दे दिए।’’

‘‘ऐसा नहीं चलेगा, शादी के बाद तुम्हारा उनसे क्या संबंधरह गया? कमाती हो शायद तुम्हें इसी बात का घमंड है।’’

जो मन में आ रहा है, बके जा रहे हो, यह ठीक नहीं है। कितना पैसा खर्च कर के उन्होंने मुझे पढ़ाया लिखाया। कभी जरूरत पड़ गई तो मैं उनके लिए इतना भी नहीं करद सकती। यह संबंध कभी खत्म होने वाला नहीं है। उनका हमारा खून का संबंध है। मेरा तुम्हारा संबंध तो बनाने से बना है।’’

ऐसी बात है तो निकल जाओ मेरे घ्र से।’’

और उसके मुंह पर मंगलसूत्र फेंक कर मैं चली आई। वह उसका घर था, तो इतने दिनों तक उस घर को अपना घर मान कर मैं क्यों सजाती रही? मैं तो यही सोचती रही कि यह घर जितना विश्वास का है, उतना ही मेरा भी है, तो क्या वह जितना विश्वास का था, उतना मेरा नहीं था। विश्वास ने क्यों कहा कि निकल जाओ मेरे घर से?’

ट्रेन अचानक झटके के साथ रुकी। मेरी तंद्रा टूटी तो देखा, मेरा स्टेशन आ गया था। मैं उठ कर खड़ी हो गई। एक भाई ने कहा, ‘‘आप नीचे उतर जाइए, मैं आपका सामान पकड़ाए देता हूं।’’

वीरेन्द्र बहादुर सिंह

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