कहने को तो शहर
बसा हूं
✍नवीन हलदूणवी
कीचड़ में अब खूब
धसा हूं,
कहने को तो शहर बसा हूं।
ऊपर नीचे झांक रहा
हूं,
दो पाटन के बीच फसा हूं।
मानव मन में जहर भरा
है,
घर में घायल सांप
डसा हूं।
नालों की बदबू को
सहकर,
धरती का मैं जीव कसा हूं।
छोड़ दिया था गांव
सुनहरा,
अपने पर ही आज हसा
हूं।
दाग "नवीन" लगा है
ऐसा,
माथे का ज्यों तिलक
मसा हूं।
(2)
"रोटी
दे दो छोटों को"
ढूंढ रहे हैं नोटों को,
भूल गए हैं बोटों को।
बीच धरा में पिसता
है,
समझो उसकी चोटों को।
टैक्स चुराते रहते हैं,
छोड़ो अब मन खोटों
को।
संसद मेरी पूज रही,
पहले से ही मोटों को।
धन तो खूब लुटाती है,
वेसिर पैरे लोटों को।
कलम "नवीन" तड़फती है,
रोटी दे दो छोटों को।
✍नवीन हलदूणवी
8219484701
काव्य - कुंज जसूर-176201,
जिला कांगड़ा ,हिमाचल
प्रदेश।
1 Comments
शहर और गांव दोनों ही आत्मनिर्भर नहीं रहे। आज पुनः हमें विकास की नीतियों का पुनर्विचार करना होगा।
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