'कुदरत का कहर'
✍प्रवीण जोरिया 'जन्नत''
पक चुकी चहुँ ओर फसल।
मानव का दुर्भाग्य कहें या,
कहें कुदरत का नृशंस कहर।।
खुद को कोसना ही अच्छा है,
'खुदा' को गुनहगार कहें
क्योंकर।
अब है दिन-रात सताए,
'उसकी' निष्ठुरता का यह
डर।।
तन- मन की सुध भूलकर भी,
देखिए देखने पड़ रहे कैसे-कैसे मंजर।
सबकी रक्षा करने वाला ही,
चला रहा आज सब पर खंजर।
फसल खड़ी खेत में लेकिन,
कृषक का जीवन हो चला है बंजर।।
मनचाही मुरादें देने वाला,
हो चला भैया देखो कितना नामुराद।
एक हाथ से देकर 'जन्नत',
दूजे हाथ कर रहा बर्बाद ।
मरे हुए को मारकर देखो,
ये खुदा भी बन रहा तीरंदाज।।
डी एन यू,शाहीन बाग,कोरोना के
मद्धिम भी नहीं हुए थे शोले।
कुदरत ने खड़ी फसल में आग लगा दी,
बरसा मूसलाधार जल व ओले।।
भूख की प्रज्वलित ज्वाला को,
संतोष के जल से बुझाने की आदत डालो।
यहाँ हर रक्षक ही भक्षक है,
कुछ भी न बचाने की आदत डालो।।
मिट्टी से सोना पैदा करने वालों,
मिट्टी से लोहा लेने वालों।
माँगने से भीख भी न मिलेगी अब,
गम खाने की आदत डालो।।
गम खाने की आदत डालो।।
कवि-
✍प्रवीण जोरिया 'जन्नत''
कतलाहेड़ी,करनाल
(हरियाणा)
चलभाष सं०- 8569928797,9034956534
1 Comments
Praveen ji ek kisan ki vyatha ko kya khub shaql di hai apni kalam se bahut bahut dhanyavaad aapka
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